शनिवार, 18 मार्च 2017

विचारधारा..

कैडर,कार्यकर्ता और "विचारधारा" यही तीन चीज़ों को लेकर पार्टी,दल या संग़ठन बनता है,कोई भी इसके खिलाफ या समर्थन में हो सकता है,मगर अहम बात बस यहीं है कि कोनसा दल अपनी विचारधारा पर टिका रहता है और उसके साथ साथ उसका कैडर साथ रहता है,अपने दल को मजबूत करता है उसे फर्श से अर्श तक पाहुंचाता है.

भारतीय सियासत में सीपीआई,कांग्रेस और बसपा,भाजपा मुख्य रूप से ज़मीनी स्तर की पार्टी है,लेकिन कांग्रेस,बसपा ने अपनी ज़मीन खुद खोयीं सत्ता के नशे में चूर होकर अपने कैडर को कमज़ोर करते हुए सिर्फ सत्ता का मज़ा लुटा और ज़मीनी तौर पर खुद को मज़बूत कतई नही किया, और इससे भी ज़्यादा अपनी विचारधारा तक को बदल दिया,उसका नुक्सान सबने झेला.

वहीं दूसरी तरफ सीपीआई/ऐम, भाजपा ने अपने आप को ज़मीनी तौर पर मज़बूत किया और पूरी ईमानदारी से टिके रहे अपनी विचारधारा पर,सिद्धान्त पर और कार्यकर्ताओं की बहू बहुत इज़्ज़त हुई,लेकिन कंम्यूनिस्ट पार्टी शायद ये भूल गयी की जिस "सर्वहारा" सिद्धान्त पर वो काम कर रही है वो सर्वहारा भी इंसानों का ही तो है,आखिर कैसे वो अपने ऊपर हुए बंगाल में ज़ुल्म भूल जाते,कैसे अपनी छीनी हुई ज़मीनों को भूल जातें? कैसे? बस इसलिए बंगाल का 34 साल का शासन "सर्वहारा" जनता ने ही खत्म किया,

और हुआ भी यूँ ही सत्ता के अर्श से फर्श पर आज कंम्यूनिस्ट पार्टी है, वही बात भाजपा की करें तो वो ज्यो की त्यों अपनी विचारधारा पर खड़ी है,अपने सिद्धान्त को आगे बढ़ा रही है,आप इसे गलत या सही कहिये,बुरा कहिये लेकिन हां पूरी की पूरी भाजपा उसकी विचारधारा उसका कैडेट ऐसा का ऐसा ही खड़ा है,हार हो या जीत हो,बुरा हो या भला हो चाहे कितनी लानतें क्यों न मिली हो लेकिन फिर भाजपा अपनी विचारधारा से हटी नही और न ही उसने अपनी विचारधारा बदली,यहीं वजह है कि उसके कार्यकर्ता उससे जुड़े रहें और पार्टी को आगे भी बढ़ाया.

अब इस बात को इनाम कहें या फल कहें जो भी कहें मगर भाजपा आज जहां भी है सिर्फ अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदारी,कैडर की मज़बूती और ज़मीनी स्तर पर किये गए काम से ही आज उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में प्रचंड बहुमत और पूरे देश की 58 प्रतिशत सरकार पर उसका राज होना ,इसके अलावा हर राज्य,हर क्षेत्र में उसके कार्यकर्ता का होना इसी बात का प्रमाण है और इसी कर्तव्यनिष्ठा का फल है.

वैचारिक मतभेद अपनी जगह है,भाजपा की विचारधारा का अपनी जगह है,बुराई अच्छाई अपनी जगह है, लेकिन भाजपा को जो मिला उसकी अपनी मेहनत है उसके कार्यकर्ताओं की मेहनत है,और भाजपा के अपनी विचारधारा पर टिकें रहने की वजह है कि भाजपा आज कामयाब है,अब कितने भी जोक्स,व्यंग्य या बातें सामने रखीं जाएँ,मगर भाजपा आज सत्ता के अर्श पर है और तमाम विचारधाराओं को और संग़ठन को भाजपा से सीखना चाहिए की कैसे अपनी विचारधारा,कैडर और सोच को मजबूत किया जाता है और अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया जाता है...भाजपा को मुबारकबाद और उसकी जीत सभी को सीखने का जीता जागता उदाहरण है..

#वंदे_ईश्वरम

सोमवार, 30 जनवरी 2017

मर्ज़ी आपकी है.....

यूपी चुनाव की जाति क्या है? यूपी का धर्म क्या है? यादव,ब्राह्मण,बनिया,ठाकुर,वैश्य और यूपी का धर्म क्या है हिन्दू,मुस्लिम,सिख या जैन? पता नही इनमे से कोई भी चीज़ पुरे उत्तर प्रदेश पर एक साथ रुक सकती है,या थम सकती है या रह सकती है या फिर किसी भी एक जाति का या एक धर्म का राज उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हो सकता है? कभी नही हो सकता और इस बात को सबसे ज़्यादा अच्छे से वहां के राजनेता जानते है और समझते है  और यही वजह है कि पिछले 30 से 40 साल से उत्तर प्रदेश की जनता इसी चक्रव्यूह में फंसी भी है,लेकीन क्या इस सब के लिये महज़ नेता ही ज़िम्मेदार है? नही बिलकुल ऐसा नही है.

उत्तर प्रदेश में भरी पूरी आबादी है,विविधता है ,गांव है दूर दूर देहात है एक जिलें में इलाके है वहाँ शहर है,गांव है तालुके है और उसी में जाति है,उसी धर्म है और इन्ही सब मे लोग है,और यही से राजनीति शुरू होती है,अगर मोटे तौर पर इस जातिगत राजनीती या धर्मवादी राजनीती की बात करें तो हमे नज़र आएगा की तमाम राजनितिक पार्टियां हर क्षेत्र के हिसाब से अपने अपने प्रत्याशी तय करती है,मिसाल के तौर पर मेरठ शहर विधानसभा की बात करें तो नज़र आएगा की वहां मुस्लिम समुदाय के साथ,पंजाबी और बनिया आबादी के साथ ब्राह्मण आबादी भी है तो गौर करें भाजपा के यहां से प्रत्याशी लक्ष्मीकांत वाजपयी है जो "ब्राह्मण" है,बसपा के यहां से प्रत्याशी पंकज जॉली है जो "पंजाबी" है और सपा के यहां से प्रत्याशी "रफ़ीक़ अंसारी" है जो मुस्लिम है, यानि कुल मिलाकर तीनों मुख्यों दलों ने अपना जातिगत,धार्मिक दांव पूरी तरह खेला है.

चलिये ये तो बात राजनितिक पार्टियों की लेकिन क्या वहां के वोटर्स भी जाति,धर्म देख कर वोट नही करते है,राजनितिक पार्टियों से ज़्यादा ये आबादी भी तो कहीं जातिवादी,धर्मवादी नही? भरे दिल से ही मानिये लेकिन ये सच है,उत्तर प्रदेश की जनता का बड़ा हिसा और उन लोगों की मेन्टलिटी बिलकुल साम्प्रदायिक हो गयी है,जातिवादी हो गयी है और अगर ऐसा नही है तो क्यों मायावती जो "तिलक तराज़ू और तलवार" जेसा उत्तेजक नारा देकर भी "हाथी नही गणेश है" कहकर ब्राह्मण प्रत्याशी उतार कर ब्राह्मणों की सगी हो गयी? कैसे "सबका साथ सबका विकास" कहने वाली भाजपा पुरे उत्तर प्रदेश में भरी पूरी मुस्लिम आबादी होने के बावजूद भी एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में न उतार कर तमाम "सेक्युलर" लोगों को सगी हो गई? कैसे नाम के आगे बडा बड़ा "यादव" लिखने वाली सपा सबकी सगी ही गयी? शायद इन बातों का जवाब देते हुए लोग बगलें झाँकने लगे और बात घुमा दे लेकिन ये सच है,कोरा सच.

अंत में बस ये की अगर जातिं,धर्म और यहां तक की क्षेत्र की बात अब भी अगर दिमाग में लेकर यूपी की जनता वोट करेगी तो अपने इलाके की बदहाली की,अशिक्षा की,समस्याओं की ज़िम्मेदारी उन तमाम लोगों की होगी जो जाति ,धर्म,क्षेत्र देख कर वोट करते है न की राजनैतिक दलों की गलती,या फिर जनता अपने मुद्दों को लेकर वोट करें और फिर हर पार्टी,हर दल से जवाब मांगे जब शायद बेहतरी नज़र आये,वरना जैसा जनता चाहें करें मर्ज़ी उनकी है....

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

कांग्रेस तुम्हे प्रियंका चाहिए...

कांग्रेस तुम्हे "प्रियंका" चाहिए,बिलकुल वेसे जैसे डूबते को तिनका चाहिए,कांग्रेस लगभग डूब चुकी है और आगे भी डूब हो रही है,पीछे भी विधानसभा में भी लोकसभा में भी अब इसकी वजह बताइये?नही पता?इसकी सीधी वजह है कांग्रेस के पास "नेता" न होना,जी हां कांग्रेस के पास राहुल है,दिग्विजय है,ग़ुलाम नबी आज़ाद है लेकिन 'नेता' नही,मगर सारी उम्मीद भी नही खोयी है अभी उसके पास 'प्रियंका' है.

कांग्रेस बेशक डूबता जहाज़ है लेकिन ये जहाज़ बच सकता है अगर इसका कप्तान प्रियंका बने,प्रियंका वही जो नरेन्द्र मोदी को उनके उम्मीदवारी पद की गरिमा का ध्यान रखने की बात दो टूक कहती है,वही जो डूबता चुनाव अपने दम पर बाहर  निकाल कर लाती है और वही प्रियंका जो 'वरुण' को आगाह करती है,ये उदाहरण काफी है इंदिरा की पोती और एक मंझी हुई नेताओं की खूबी का बखान करने के लिए.

असल में कांग्रेस की हार की वजह सिर्फ उसकी नीतियाँ ही है, जिसमें राहुल को ऐसा नेता बना लेना है जो सिर्फ जीत का जिम्मेदार है और इस चीज़ को कवर करने के लिए प्रियंका की रामबाण का काम कर चुकी है,लेकिन शायद कांग्रेस प्रियंका से डरती है?कि कहि उनका व्यक्तित्व राहुल को खत्म न कर दें? और ये नही तो क्या वजह है प्रियंका की देहलीज़ या यानी अमेठी और रायबरेली की?

बरहाल प्रियंका की अहमियत क्या है वो एक या दो जनसभा में अपनी खरी,एकटक और झुझारू और एक चोटी के नेता जैसा बयान देकर दिखा दिया है,और कांग्रेस को चाहिए की इस बार जुआ खेलें यूपी में और वो जुआ हो प्रियंका के नाम का क्योंकि अगर इस जुए का दांव सही बैठा तो 27 साल का सूखा खत्म होगा और साथ में कांग्रेस को "नेता" भी मिला जायगा,जिसकी उसे बहुत जरूरत है.

लेकिन जिस कांग्रेस को अब भी प्रियंका की अहमियत समझ नही आ रही उसी के अमरिंदर सिंह जैसे क्षेत्रीय नेता समझ रहे है और पंजाब में चुनाव प्रचार को बात कर रहे है और शायद ऐसा हो जाये?क्योंकि ऐसा होना सियासत को रोमांचित कर देगा,बहुत कर देगा...

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

सियासत में सोनिया होना आसान नही..

सियासत में बहुत कुछ होता है,विवाद,विचारधारा सत्ता ,विपक्ष और दल लेकिन नही होता है तो शायद "सोनिया" नही होती,राजीव की बीवी,इंदिरा की बहुं राहुल की माँ और कांग्रेस की गॉडफादर सोनिया गाँधी एक ऐसी शख़्सियत है जो अपने सिद्धांतों के लिए प्रधान मंत्री पद जैसा अमूल्य पद तक त्याग चुकी है,इसलिए इन्हें 2004 में कांग्रेस को करिश्माई बढ़त दिलाने के बाद एक वरिष्ठ पत्रकार ने "भारत माता" तक का ख़िताब किया था.

सोनिया गांधी वही थी जो 1984 में इंदिरा गांधी के हत्या के बाद अपने पति के साथ खड़ी थी एक बीवी बनकर,91 में राजीव गांधी की हत्या के बाद अपने यतीम हुए बच्चों को सम्भाल रही थी एक माँ  बनकर,और 99 में कांग्रेस की बागडोर पूरी ईमानदारी से सम्भाल रही थी एक नेता बनकर और ये सोनिया गांधी का जादुई करिश्मा था कि भाजपा का "शाइनिंग इंडिया भी मार खा गया.

सोनिया कभी भी पार्टी से अलग नही रही समय बुरा हो या भला हो सोनिया हमेशा कांग्रेस के लिए रही एक नेता की तरह और बड़े की तरह है,और सोनिया की हैसियत भी यही है,सोनिया 2004 की सत्ता से लेकर 2014 के विपक्ष तक कांग्रेस के साथ खड़ी है,कांग्रेस को साथ लेकर चल रही है और इसी को तो नेता कहते है.

सोनिया गांधी ने ही 2004 से लेकर 2014 तक सत्ता में रहने के बाद भी कोई भी पद नही लिए,कोई सरकारी भागीदारी नही ली और कांग्रेस को अपने बच्चे की तरह पाला तभी सियासत में सोनिया गांधी की विरोधी भी तारीफ करते है,विवाद ,आरोप और नाराज़गी अपनी जगह है लेकिन सोनिया गांधी ऐसी शख्सियत है कि उनसे राजनीती के लिए बहुत कुछ सीखा जा सकता है,जभी तो कहा है कि सियासत में 'सोनिया' होना आसान नही होता ...

असद शैख़

रविवार, 20 नवंबर 2016

अजीत सिंह का इम्तेहान

यूपी चुनाव 2017 के हर दल के लिए अलग मायने है, और वो कैसे है इसका अंदाज़ा लगाइये गठबन्धन,दल बदल या मुद्दों को देख कर बोल समझने की बात पर और इसी रेस में चलता एक दल है "राष्ट्रिय लोक दल" जी हां बड़े चौधरी(चरण सिंह साहब) का लगाया नायाब पौधा जो किसी हद तक उनके सामने पेड़ तक बन गया,मगर 2017 की सर्दी सर्दी आते आते मानों सूख रहा हो और इसे कांग्रेस,सपा या भाजपा से सिंचाई की ज़रूरत है,और छोटे चौधरी (अजीत सिंह) है भी इसी तलाश में.

असल में लोक दल का इतिहास सुनहरा रहा है,ये दल पूर्व प्रधानमंत्री और किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह ने बनाया था, और अहीर,जाट,गुज्जर और राजपूत यानी अजगर बनाकर पश्चिम उत्तर प्रदेश की काया पलट कर रख दी थी, हालत ये थी लोक दल से पश्चिम उत्तर प्रदेश पहचाना जाता था और और चरण सिंह ने साम्प्रदायिक से लेकर कांग्रेस की राजनीति चौपट कर दी थी, उनका ये जातीय गठबन्धन बेहद अटल था और इसी ने उन्हें मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बनाया था,लेकिन उनके जाने से शायद ये लोक दल डूब सा गया .

अब चाहें अजीत सिंह की नाकामी रही हो या यूपी के परिस्थितियां मगर अकेले दम पर "हरित प्रदेश" का नारा देने वाले अजीत सिंह मुस्लिम और जाट गठबन्धन बनाने वाले आज अपने सामने बनी सपा से जुड़ाव को मजबूर है,लोक दल का जनाधार पश्चिम यूपी में इतना था कि वो केंद्रीय मंत्री बन काफ़ी सुधार कर दिया करते थे,लेकिन मुज़फ्फरनगर दंगे ने तक जैसे छोटे चौधरी के लोक दल को खोखला कर दिया,और अजीत और जयंत दोनों अपनी सीट तक हर गये,और इससे सम्भलते हुए 2017 का चुनाव भी सर आ गया,मगर यहा अजीत सिंह के पास आख़री इक्का शायद अब भी बचा हुआ है.

और ये इक्का है जाट-मुस्लिम गठबन्धन का फिर से अजीत सिंह का साथ देना,और ऐसा कम से कम भाजपा नही होने देना चाहेगी,लेकिन अगर ऐसा करने में अजीत सिंह कामयाब हो गए तो ये चुनाव अजीत के लोकदल की किस्मत में चार चांद लगा देगा,क्योकी वो साम्प्रदायिक शक्ति और सपा की "दंगे" वाली छवि को भूनकर  शायद कामयाब हो जाएं ,लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये भी है कि लोकदल मैदान में अकेलें उतरेगा क्या ? क्योंकि अगर वो ये चुनाव बेहतर लड़ कर कम से कम पश्चिम यूपी में अपनी छवि को फिर से उभार सकते है..

लेकिन चुनाव में कब क्या हो जाएं किसी को क्या पता,आखिर अजीत साहब भाजपा और कांग्रेस दोनों के साथ राजनीती की रोटी सेंख चुके है कब वो किधर जाएँ,कुछ कहा नही जा सकता लेकिन हाँ ये चुनाव अजीत सिंह के लिए ख़ुद को अपने क़ाबिल बेटे और महासचिव बेटे को दोबारा उरूज पर ले जाने वाला चुनाव होगा, और शायद अजीत साहब यूपी की राजनीती के सिपहसलार बन आख़िर में किसी की सरकार ही बनवाये,क्या मालूम कोंन जाने..

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

दीदी, नई उम्मीद?

दीदी, शाबाश, जी हां बंगाल की मुख्यमंत्री,तृणमूल कोंग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व रेल मंत्री ममता बनर्जी को  मेने शाबाश इसलिए कहा क्योंकि नोटबन्दी के मसले पर विपक्षी दल के तौर पर सबसे मुखर तौर पर और दो टूक बोलने की हिम्मत अगर किसी ने करि है तो वो है दीदी, ममता बनर्जी ने ही केंद्र सरकार के नोटबन्दी फैसले के ख़िलाफ़ संसद के बाहर एक विरोध मार्च निकलवा कर एक माहौल बना कर विपक्ष होने की हिम्मत दिखायी,और ये बात इसलिए भी अहम है क्योंकि विपक्ष होना लोकतंत्र की पहचान है.

पूर्व रेल मंत्री और वर्तमान बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस मार्च तक ही नही रुकी उन्होंने  दिल्ली के मुख्यमंत्री के साथ आजादपुर मंडी में संयुक्त रैली कर नरेंद्र मोदी को एकतरफ़ा चुनौती देकर नोटबन्दी के फैसले को वापस लेने की बात कही, जो केंद्र सरकार के लिए अच्छी भली चुनौती भी है,मगर बात सिर्फ इतनी ही नही है बात कुछ और भी है कि आखिर दीदी क्यों केंद्र पर इतना ध्यान दे रही है? कही ये वो खिचड़ी तो नही जो 2019 में बनेगी?

अगर बात दीदी के ऐतिहास से लेकर वर्तमान की करें तो बंगाल में लेफ्ट के 34 साल के किले को ध्वस्त कर बंगाल पर काबिज़ होने वाली 'माँ,माटी और मानुष' का नारा देने वाली ममता दी केंद्र में 'रेल मंत्री' भी रह चुकी है और हो न अब दीदी शायद 'दिल्ली' जाना चाहती है और इसी के लिए वो जद्दोजहद में लगी है,लेकिन ध्यान करने वाली बात ये है कि राजग और यूपीए दोनों की सरकार में मंत्री रही ममता दी अपने मौजूदा 44 सांसदों के साथ दिल्ली तक पहुंच पाएंगी क्या?

लेकिन अगर आज बात बीजेपी के खिलाफ 2019 के चुनावों में खड़े होने वाले नेताओं की बात करें तो दीदी उसमे अव्वल है,और कमज़ोर होती कोंग्रेस के बदले में  आने वाले वक़्त में जिस तीसरे या चौथे मोर्चे की सुगबुगाहट राजनेतिक गलियारों में है उसमें ममता दी बहुत मजबूत है, और हो न हो दीदी भी यही सोच रही है,इससे भी ज़्यादा ममता बनर्जी की साफ और बेबाक़ बोलने वाली छवि भी 2019 में मोदी जी के बड़े रुप के सामने टिकती हुई नजर आएंगी और वर्तमान जैसे 20 से 25 दलों के गठबंधन के साथ ही सही लेकिन देश के लिए एक नया विकल्प शायद दे पाए.

लेकिन ये तो पूर्वानुमान ही है मगर एक बात तो है नोटबन्दी के खिलाफ बोलने वालों के लिए दीदी ला साथ ऑक्सिजन जैसा है मगर बंगाल की दीदी दिल्ली में बिना "7 आरसीआर" की चाहत के मुश्किल ही बोलेंगी,इसलिए दोनों चीज़ों को साथ देखना बेहद ज़रूरी है.

असद शैख़

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

सेक्युलर मसीहा होने की जंग

राजनीति का वर्तमान हमेशा उसका भविष्य तय करता है और अच्छा या बुरा अलग बात मगर ये भी देखने लायक होता है कि कहा क्या हुआ? कैसे हुआ और किसने किया ,अगर 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के बाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति के बदलाव की बात करें तो शायद उस वक़्त के अलावा कोई वक़्त हमारें उत्तर प्रदेशीय इतिहास में ऐसा होगा जो शायद राज्य को इतना बदल दे.

1992 के बाद कल्याण सिंह यूपी की सत्ता से उतर चुके थे, और तब पूर्ण रुप से उभार हुआ था यूपी के भविष्य के दो नेताओं का यानी धरती पुत्र मुलायम सिंह यादव और बहन जी कुमारी मायावती जी, और इत्तेफाक़ से दोनों दलितों ,पिछड़ों और मुसलमानों की राजनीति करते और 1993 में दोनों ने मिलकर सरकार भी चलायी,मगर 1993 से लेकर 2016 तक कितने ही चुनाव आये और गऐ,मगर मुसलमानों को क्या मिला?

मायावती जी चार बार उत्तर प्रदेश की गद्दी पर काबिज़ हो चुकी है और मुलायम सिंह जी भी लगभग इतनी ही बार यूपी फतह कर चुके है ,और 'मौलाना' बने मुलायम और "तिलक तराज़ू तलवार इनको मारो जूते चार" का नारा दे चुके ये दोनों नेता बिना मुस्लिम वोट के कुछ भी नही है, लेकिन फिर भी ये दोनों मुसलमानों को "सेक्युलरिज़्म" की ज़िम्मेदारी देकर भाजपा की तरफ क्यों चले जाते है? माया जी भाजपा के साथ सरकार बना चुकी और मुलायम जी बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक़्त के मुख्यमंत्री को पार्टी ने जोड़ चुके है.

अब सवाल ये है कि यूपी में सेक्युलर राजनीति के तीन बड़े सूरमाओं से दो का हाल आपके सामने है,और राजनैतिक पंडितों की खिचड़ी विधानसभा वाली बात भी आपके सामने है तो बताइये क्या ये दोनों में से कोई भी भाजपा के साथ नही जायेंगे इसकी कोई ज़िम्मेदारी लेगा? और अगर नही ले सकता है तो केसा सेक्युलरिज़्म?  हो सकता है कथित मुस्लिम रहनुमाओं की भीड़ के पेट में इस बात से दर्द हो सकता है लेकिन आख़िर वो कैसे भविष्य के वर्तमान से भाग सकेंगे? मगर ये सियासत है साहब यहा दाग़ धूल भी जाते है.

अब गाहे बगाहे हो या नही यूपी की सेक्युलर राजनीति का मसीहा बनने की ही जंग तो है, जो आज भी बहन जी सिर्फ भाजपा का डर ही दिखा रही है, और सत्ताधारी सपा दूसरी बार भी 'महागठबंधन' को बनते बनते भूल गयी और कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी, बाकी वर्तमान का इतिहास क्या कोई सरीखा गठजोड़ लाता है ये देखना होगा..

असद शैख़

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विचारधारा..

कैडर,कार्यकर्ता और "विचारधारा" यही तीन चीज़ों को लेकर पार्टी,दल या संग़ठन बनता है,कोई भी इसके खिलाफ या समर्थन में हो सकता है,मगर अहम...

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